किसान एक दाना बोता है - कविता - मयंक कर्दम


झूमती फसलें,सूर्य के आगे,
सूर्य की किरण,खिलते पुष्प ,
गेहूं चोंच  में चिड़िया  भागे ,
लोगों की भूख को वो जागे,
खेतों में संसार को ढोता है,
किसान एक   दाना बोता है।

भोरा पीड़ा कुसुम को देता,
काला अब्र टूटता खेती पर,
अपना अन्न सब  को देता,
ख्वाब समेट , दाने के लिए,
आंखों में भर आंसू रोता है,
किसान एक दाना होता है।

प्यासी धरा,पत्थर के चूर्ण से,
ठंड,गर्म तापमान से  ठिठुरता ,
ख्वाब ढका,हरियाली चादर में,
भारत का या  प्रदेश निवासी ,
महल नहीं कुटिया में सोता है,
किसान  एक दाना  बोता है।

कोमल पसीना,आंखें भरी सी,
कांटो पर चढ़,पैरों में जख्म पूर्ण,
खुशियां बस,फूलों के उपवन की,
चिंता में  डूबा अपने वतन की,
कोशिश में  खुद चैन खोता है,
किसान  एक दाना  बोता है।


मयंक कर्दम
मेरठ

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