आदमी - ग़ज़ल - समुन्दर सिंह पंवार


किस सांचे में आदमी ढलता जा रहा है
अपना - अपनों को ही छलता जा रहा है

क्यों दोष दें हम शहरों को आज यारो
गांव का माहौल भी बदलता जा रहा है

टूट चुके हैं आज सभी रिश्ते - नाते
सबके दिलों में स्वार्थ पलता जा रहा है

अपने दुःखों से दुःखी नहीं है आदमी
दूसरे के सुख से जलता जा रहा है

जो सबसे है  चार सौ बीस यहां पर
वो ही सबसे आगे निकलता जा रहा है

जो नही हैं काबिल घर भी चलाने के
तख्तो-ताज उन्हीं को मिलता जा रहा है

समंदर से मिलने की लेकर के आशा
नदियों का ये जल तो चलता जा रहा है

समुन्दर सिंह पंवार
रोहतक , हरियाणा

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