घना धुँध - कविता - प्रवीन 'पथिक'
मंगलवार, मई 20, 2025
जीवन गहराता जा रहा,
एक घने धुँध से।
मन व्याकुल है;
जैसे पिंजरे में बंद कोई पक्षी हो।
हृदय आहत है;
अपने ही द्वारा किए गए कार्यों से।
शरीर एकांत चाहता है–
जहाॅं, वह लोगों के वाक्-बाणों से,
अपने हृदय को बचा सके।
मानस में असंख्य विचार
झकझोरते हैं चित्त को।
अन्यमनस्क-सा
सोचता है मेरा मन।
पर, कुछ कर नहीं पाता।
ना ही कुछ सोचता ही,
अपने कर्तव्यों के बारे में।
या ज़िम्मेदारियों के निर्वहन हेतु।
थका, हारा एक पथिक सा मेरा मन
बैठ जाता है,
किसी साधक के कुटिया के समक्ष।
अपने प्रश्नों के उत्तर के लिए–
अनवरत्
समाधिस्थ, एकांत।
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