एक दो-दिन का है ख़ुमार, बस, और - ग़ज़ल - रोहित सैनी

एक दो-दिन का है ख़ुमार, बस, और - ग़ज़ल - रोहित सैनी | Ghazal - Ek Do Din Ka Hai Khumaar Bas Aur. इश्क़ पर ग़ज़ल
अरकान : फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
तक़ती : 2122  1212  22

एक दो-दिन का है ख़ुमार, बस, और,
सोचा थोड़ा-सा इंतिज़ार, बस, और।

भूल जाने में कौन मुश्किल है,
चार-छै उम्र का क़रार, बस, और।

मुझे पहले-पहल यही लगा था,
मुझे खा जाएगा क्या प्यार, बस, और।

नदिया, सहरा, पहाड़, फिर जंगल,
मुझमें उग आया इंतिज़ार, बस, और।

बस यही चाह थी तुम्हारी, अब,
हो गए तार-तार, यार, बस, और।


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