बरगद का दरख़्त है तू - कविता - सतीश शर्मा 'सृजन'

न किया पहचान निज का,
तो बड़ा कमबख़्त है तू।
तिनकों से तुलना क्या तेरी,
बरगद का दरख़्त है तू।

आज तो है कल नहीं तृण,
वायु से या जल में बहता।
जबकि कितने वर्षों तेरा,
धरा पर अस्तित्व रहता।

पीपल पाकड़ आम जामुन,
से वृहद आकार है तू।
शक्त जड़ विशाल डालें,
घना बन साकार है तू।

कितने आँधी तूफ़ाँ आएँ,
तू तनिक भी नहीं हिलता।
पत्ते जड़ व तना लट से,
दवा ईंधन भोज्य मिलता।

थके हारे पथिक जन का
अति सघन सी छाँव है तू।
जाने कितने पशु पखेरू,
का बना नित ठाँव है तू।

गर्व से स्तर पर रहकर,
सीधा रख ऊँचा शिखर।
परख कर अस्तित्व अपना,
डटा रह बनकर प्रखर।

मनुज तू भी वट के जैसा,
सृष्टि का सिरमौर तू।
बुद्धि बल विवेक पाया,
अंतर निहित शौर्य तू।

लगा रह परमार्थ में तू,
दिया जो बहार ने।
देख कितना शुभ बनाया,
तुझे सृजनहार ने।

सतीश शर्मा 'सृजन' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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