वो पगली - कविता - मोहित बाजपेयी

जब चाँद किसी का चेहरा बन 
मेरी नींद उड़ाने लगता है,
नाजुक झोंका पुरवाई का
जब गीत सुनाने लगता है।

जब बिना बात के चेहरे पर
अल्हड़ मुस्कान बनी रहती,
जब देख के मेरा खोयापन
है सबकी आँख तनी रहती।

जब ध्यान और योगा में भी
बस रूप उसी का दिखता है,
जब सपनों में भी व्याकुल मन
बस नाम उसी का जपता है।

तब दिल कहता है ज़ाम है वो
मैं जिसमे बहकता रहता हूँ,
वो एक पगली है मैं जिसकी
खुशबू से महकता रहता हूँ।

जब ज़्यादा फ़ोन चलाने पर
माँ जी कुछ डाट सुनाती हैं,
खाना खाते-खाते बिखरे 
चावल मुझसे बुनवाती हैं।

जब ख़ुद को लेता रोक मगर
उसका मैसेज आ जाता है,
जब अख़बारों के पन्नो पर
लव का पैसेज आ जाता है।

जब दिन भर दौड़ा भागी में 
सर उसका दुखने लगता है,
जब होश गवाँ करके माही
दिल मेरा रुकने लगता है।

तब दिल कहता है शाम है वो
मैं जिसमे गुज़रता रहता हूँ,
वो एक पगली है मैं जिसकी
ख़ुशबू से महकता रहता हूँ।

जब जून की छुट्टी में 'जाना'
घर जेल सरीखा लगता है,
दिन काट के फिर कॉलेज आना
जब बेल सरीखा लगता है।

जब बैठ थियेटर में उसको
ख़ुद में आरेखा करते हैं,
वो मूवी देखा करती है
हम उसको देखा करते हैं।

जब सूरज पर ग़ुस्सा आती
इतनी जल्दी क्यो ढलते हो,
ऑटों वाले भइया बोलो
इतनी जल्दी चलते क्यो हो।

तब दिल कहता है ख़्वाब है वो
मैं जिसमे ठहरता रहता हूँ,
वो एक पगली है मैं जिसकी
ख़ुशबू से महकता रहता हूँ।

मोहित बाजपेयी - सीतापुर (उत्तर प्रदेश)

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