रोम-रोम भर गया अनंग - गीत - प्रीति त्रिपाठी

मन का मकरंद ले गया
दे गया है भावना के रंग,
प्रीत की सुधीर माधुरी
रोम-रोम भर गया अनंग।

आँख खोलते ही मींच ली
रूप की उजास यूँ पड़ी,
छू रही थी कामना नई
मुग्ध होके कामिनी खड़ी।
आसमान से उतार लो
तन की मेरी डोलती पतंग,
प्रीत की सुधीर माधुरी
रोम-रोम भर गया अनंग।

ओढ़नी की कोर से जुड़ी
लाज की अधीरता बढ़ी,
मौन होके देखती रही
रूढ़ियों से बेड़ियाँ लड़ीं।
मनकही की बाँसुरी बजी
साथ मिला रास का मृदंग,
प्रीत की सुधीर माधुरी
रोम -रोम भर गया अनंग।

मोहिनी के पाश से बंधी
गीत मैं नए सभी लिखूँ,
सूर्य की प्रदीप्त रश्मि सी
चाँदनी की छाँव में दिखूँ।
छंद या विधान छोड़कर
याद करूँ प्रिय के प्रसंग,
प्रीत की सुधीर माधुरी
रोम-रोम भर गया अनंग।

मन का मकरंद ले गया
दे गया है भावना के रंग,
प्रीत की सुधीर माधुरी
रोम-रोम भर गया अनंग।।

प्रीति त्रिपाठी - नई दिल्ली

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