छूकर मैंने तुझको - कविता - आदेश आर्य 'बसन्त'

मेरा तुझको छूना
अपने नयनों से, 
कोई ग़लती तो नहीं कर दी मैंने।
नेत्र नील विशाल
जलधि सम
देखूँ आँखें, नम तो नहीं कर दी मैंने।
तेरा मुझको बाहों में भर लेना,
स्वपन प्रभा के,
अनमोल छड़ों की हामी तो नहीं भर दी मैंने।
छूकर तेरा बदन सुकोमल,
जैसे गगन को घेरे बादल
धवल मेघ की महिमा,
कहीं धूमिल तो नहीं कर दी मैंने।
तेरे अधरों की लाली,
जैसे कमल खिला हो पनघट पर,
अपने अधरो से चुनकर, 
बो लाली मलिन तो नहीं कर दी मैंने।
ब्रह्म कमल के कोपल जैसे
तेरे अधर,
सुधारस में डूबे।
गोल कपोल, बदन सरस तुम्हारा
जैसे मंदाकिनी की,
लज्जा भंग तो नहीं कर दी मैंने।
शीश जटा
कटि तलक प्रसारित।
शेषनाग ज्यों सागर तल तक,
अनंग संकरी कटि तुम्हारी।
कान्हा के हाथों की मुरली की,
धुन मद्धिम तो नहीं कर दी मैंने।
छूकर मैंने तुझको गंगा की
पवित्रता खंडित तो नहीं कर दी मैंने।
कोई ग़लती तो नही कर दी मैंने।

आदेश आर्य 'बसन्त' - पीलीभीत (उत्तर प्रदेश)

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