कह रहे हैं केशव सुनो कर्ण - कविता - राघवेंद्र सिंह

महाभारत में कृष्ण और कर्ण संवाद का परिदृश्य दिखाती कविता।

जब शुरू हुआ विध्वंश युद्ध,
धरती कांँपी हुआ काल क्रुद्ध।
बजा बिगुल भीषण रण का,
दुर्दशा देखती मुख प्रण का।

भीषण रण में केशव आए,
रथ कर्ण चढ़ाकर वो लाए।
कहते हैं केशव कर्ण सुनो,
उचित अनुचित क्या आज चुनो।

ठहरो तो ज़रा तुम अंगराज,
यह प्रश्न उठा है मन में आज।
दिग्गज जो थे सब हुए मौन,
पहचानो कर्ण तुम स्वयं कौन।

जो रहा सत्य क्या तुझे ज्ञात,
बतलाऊंँ तुझको सत्य बात।
तू स्वयं कुन्ती का है जाया,
यह सत्य आज है बतलाया।

निर्णय ले अभी है समय शेष,
मन कोमल कर न रख द्वेष।
जो हुआ उसे तू तुरत भूल,
राधेय जरा तू जान मूल।

सुन बातें केशव की वह वीर,
हो गया कर्ण क्षण वह अधीर।
अब प्रश्न चिन्ह तुम ना खींचो,
मुझको ममता से न सींचो।

है पूछ रहा वह दानवीर,
यदुनंदन के सम्मुख गंभीर।
क्यों मुझपर प्रश्न उठाते हो,
अनुचित मुझको ठहराते हो।

क्या मेरा निर्णय हुआ ग़लत,
तुम आज बताओ अपना मत।
मांँ ने जन्मा क्यों ठुकराया,
सरिता धारा में मुझे बहलाया।

क्या पत्थर हृदय लिए फिरती,
अश्रु बूंँद आंँख से न गिरती।
यदि जन्मा था मृत्यु देती,
अभिशापित जीवन क्यों देती।

इस जग में मैं अज्ञेय हुआ,
राधा मांँ से राधेय हुआ।
धिक्कार मुझे उस माता पर,
कुंठित हूंँ भाग्य विधाता पर।

इससे आगे कुछ और कहूंँ,
या केशव अब मैं मौन रहूंँ।
बन सके गुरु न द्रोण मेरे,
अनभिज्ञ हुए दृष्टिकोण मेरे।

क्षत्रिय होकर न क्षत्रिय रहा,
है सूत पुत्र का नाम सहा।
धूलों में पड़ा मैं पड़ा रहा,
पर शांत स्वर से खड़ा रहा।

जब मिले गुरु मुझे परशुराम,
सोचा जग में चमकेगा नाम।
जब हुआ ज्ञात उन्हें कुंती पुत्र,
अभिशाप दिया होकर के क्रुद्ध।

मेरा स्वर कितना चीख़ा होगा,
सब भूले तू जो सीखा होगा।
क्षत्रिय होना यहांँ हुआ पाप,
धरती अम्बर सब गए कांँप।

आगे क्या क्या मैं कहूंँ सुनो,
तुम स्वयं मेरा जीवन ये चुनो।
एक भूलवश मुझसे हुआ पाप,
गौ हत्या का मुझे लगा श्राप।

कितना अभिशापित कर्ण आज,
कितने अपमानित हैं ये राज।
द्रौपदी ने स्वयंवर ठान लिया,
कह सूत मुझे अपमान दिया।

कुंठित होकर प्रस्थान किया,
अभिशापित हूंँ ये मान लिया।
तब दुर्योधन ने सम्मान दिया,
मुझे अंगराज का दान दिया।

मुझ श्रापित का है मान किया,
राजाओं सा यशगान किया।
मुझको नव जन्म मिला जैसे,
मेरा रोम रोम हो खिला जैसे।

अब मधुसूदन निर्णय तुम ही लो,
क्या निर्णय मेरा सही कहो।
तन दुर्योधन का हुआ सकल,
ये मेरा पौरुष, मेरा भुज बल।

सुनकर अभिशापित वाणी को,
समझाया केशव ने प्राणी को।
मैं भी तो बड़ा अभागा हूंँ,
न पता कहांँ मैं जागा हूंँ।

कारागृह में हुआ आविर्भाव,
हुआ मात पिता से अलगाव।
न मुझे मिला कुछ शिक्षा में,
मृत्यु खड़ी थी प्रतीक्षा में।

तुमको भी गया था तब त्यागा,
मुझको भी गया था तब त्यागा।
तुम बने प्रेम से थे राधेय,
मैं बना प्रेम से यशोदेय।

यदि मानो तो हम हैं समान,
मुझे गाय मिलीं तुम्हें धनुष बान।
कितनी ही विफलताएंँ जग में,
तुम बने रहो नित उस पग में।

जीवन यह चुनौतीपूर्ण होगा,
निष्पक्ष यहांँ सब चूर्ण होगा।
यदि सत्य असत्य का नहीं ज्ञान,
मन का विवेक सब गया जान।

कर्ण तू ले अब अंतिम निर्णय,
अनुचित बातों का रख न भय।
तुझे अपने चाहिए या दुर्योधन,
तुम वही करो जो कहे मन।

कह उठा बात है सत्य केशव,
किंतु डिगे न अब मेरा रव।
दुर्योधन का विश्वास हूंँ मैं,
मित्रता की गहरी आस हूंँ मैं।

अब जीते जी न ठुकराऊंँगा,
मित्रता ही अब मैं निभाऊंँगा।
परिणाम युद्ध का जो भी हो,
अब आगे केशव बात कहो।

करके प्रणाम वह कर्ण चला,
मित्रता निभाने सुवर्ण चला।
केशव बोले तुम नर महान,
मित्रता तुम्हारी है पहचान।

राघवेंद्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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