हिंदी - कविता - रतन कुमार अगरवाला

हिंदी है हिंद की पहचान,
है यह हिंद का गौरव।
हिंदी हिंद की राष्ट्रभाषा,
भाषा यह बड़ी ही सौरभ।

हिंदी से मिलता अपनापन,
कुछ अपना अपना सा लगता है।
भारत के साहित्य जगत को,
शृंगार इसी से मिलता है।

हर भाषा के शब्दो को,
अपने में यह करती समाहित।
हिंदी ने है सबको अपनाया,
हर भाव से है हिंदी अलंकृत।

संस्कृत से निकली जड़ें इसकी,
हर राष्ट्र में है अब उपलब्ध।
इसके बढ़ते वर्चस्व से,
पूरा विश्व हो रहा मंत्रमुग्ध।

राम कृष्ण की भक्ति धारा,
देश विदेश में लगी है बहने।
हिंदी ही है उस धारा के कण,
ब्रह्माण्ड पूरा लगा है चहकने।

विश्व के हर उत्कृष्ट साहित्य का,
किया हमने हिंदी में अनुवादन।
पूरा संसार देख रहा एक टक,
हिंदी साहित्य का बढ़ता अनुमोदन।

धर्म ध्यान का भाव जगाती,
संस्कृत की पुत्री है हिंदी।
राम कृष्ण का अलख जगाती,
सर्व धर्म समान का भाव है हिंदी।

देश भक्ति से यह ओतप्रोत,
हिंदी ने दिए कितने ही जयगान।
जल्दी दिलों में घुल मिल जाती,
हिंदी भाषा की यही है शान।

हिंदी में जब चलती लेखनी,
भावों को मिल जाते शब्द।
हिंदी का बढ़ता वर्चस्व देख,
संसार पूरा आज है स्तब्ध।

थी तो हिंदी पहले भी राष्ट्रभाषा,
आज बन रही सही में राष्ट्रभाषा।
एक दिन हो हिंदी विश्व की भाषा।
भारत हो विश्वगुरु, है यही अभिलाषा।

पिरोकर हिंदी के सारे मोती,
हिंदी भाषा को अपनाएँगे।
हिंदी को उच्च स्थान दिलाएँगे,
विश्व को हिंदी से नहलाएँगे।

गूँजेंगे स्वर इसके ब्रह्मांड में,
गूँजेगा इससे पूरा आसमान।
हिंदी भाषा से होगा अलंकृत,
विश्व साहित्य का संपूर्ण जहान।

रतन कुमार अगरवाला - गुवाहाटी (असम)

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