क्रोध में अंधा - नवगीत - अविनाश ब्यौहार

दोपहर भट्टी सी जलती
सूरज हुआ-
क्रोध में अंधा।

लू का कोषालय है
जेठ बना होगा।
न शहरी, न देहाती
ठेठ बना होगा।।

प्यासे को पानी बेचती
मंद हुआ-
नदियों का धंधा।

अवसादों की उम्र
लगा ढलने वाली।
धीरे-धीरे मोम
लगा गलने वाली।।

है देह में-
नव प्राण फूँके-
खाएँ कृपया अश्वगंधा।

आज़ादी के उड़े
पिंजरों से सुग्गे।
मुस्कानों के
होंठ उड़ाएँगे फुग्गे।।

बोझ उठाएँ कैसा भी
मज़बूत हुआ है-
यानि कंधा।

अविनाश ब्यौहार - जबलपुर (मध्य प्रदेश)

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