ज़िंदगी - कविता - राम प्रसाद आर्य "रमेश"

ज़िंदगी के आकाश में, 
दुखों के मेघ घिर आए हैं। 
नयनों के रास्ते आज,
जमकर अश्रु बरसाए हैं।। 

सुकोमल कपोल आज, 
अश्रु-जल से खूब नहाए हैं।
भर्राते कंठ और थर्राते होंठों ने, 
दर्द के नग़्मे जमकर गुनगुनाए हैं।। 

ख़ुशियों के सारे फूल,
ग़मों की गर्मी ने झुलसाए हैं। 
तूफ़ानी फुहारों ने आज, 
जलते दिये जमकर बुझाए हैं।। 

अपने भी अपनों को छोड़,
ग़ैरों को गले लगाए हैं। 
नैनों ने निकाल दिया आज, 
तो होंठों ने जमकर ठहराए हैं।। 

जाने कब छटेंगे ये मेघ, कब हटेगा तिमिर, 
समझ तो अब तक हम नहीं पाए हैं। 
पर, प्रकाश कभी तो आएगा, 
यही सोच, हम ज़िंदगी का हर बोझ उठाए हैं।। 

ज़िंदगी ज्यों-ज्यों घटती, 
स्वप्न भी बढते चले आए हैं।
पता ही न चला कि ज़िंदगी के लालच में, 
हम मौत से भी हाथ मिलाके आए हैं।।

हाँ, धैर्य, साहस के अस्त्र, सत्य के बल, 
हम जीवन की हर जंग जीत पाए हैं। 
वरना, नंगे आए थे, नंगे ही जाएँगे, 
सुकून ये कि, हमने गर नोट नहीं, वोट तो कमाए हैं।।

राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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