होली के रँगों जैसी - लघुकथा - सुषमा दीक्षित शुक्ला

इस बार की होली नई नवेली दुल्हन हीरा के लिए अद्भुत एहसास लेकर आई थी, क्योंकि यह उसके ब्याह के बाद की पहली होली थी। अभी अभी नया घर संसार, नया परिवार मिला था, नये लोगों के साथ त्यौहार मनाना था।
यूं तो प्रायः लड़कियाँ शादी के बाद पहली होली अपने नैहर में ही मनाती हैं, मगर हीरा की ससुराल के रिवाज़ के मुताबिक बहू को पहली होली ससुराल में ही करनी थी।
अतः वह मन में कुछ उदासी छिपाएँ ख़ुद को खुश दिखाने की कोशिश के साथ होली की तैयारी करती सासू माँ के काम में हाथ बटाने लगी।
उसे अपने माँ, पिता, भाई व सखियों की याद तो आ ही रही थी।

तभी अचानक उसकी सास सुनहरे रंग का जड़ाऊ लहँगा चुनरी लेकर आँगन में आईं और हीरा के पति को आवाज़ देते हुए बोली, बेटा बहूरानी को होली में मायके घुमा ला।लड़की को तो शादी के बाद शुरुआत के त्यौहार अपने मायके में ही अच्छे लगते हैं, नए घर में धीरे-धीरे ही घुल मिल पाती है, जा बेटी जा मैं यह लहँगा लाई थी कल तेरी होली पर पहनने के लिए, इसे पहन कर चली जा नैहर।
हीरा की आँखों में अपनी सासू माँ के प्रति अथाह श्रद्धा के आँसू उमड़ पड़े।

गुलाबी रंग की साड़ी में बेहद खूबसूरत लग रही हीरा बोली, नहीं माँ जी मुझे आप लोगों के साथ ही होली मनानी है मायके में तो मैंने हमेशा ही होली मनाई है, फिर जिसके पास आप जैसी सासू माँ हो उसके लिए तो हर रोज़ ही होली और दिवाली है। हीरा के मुँह से ऐसे बोल सुनते ही उसके पति की तो मानो मुराद ही पूरी हो गई हो। पति से नज़र मिलते ही हीरा शर्म से लाल हो गई, होली के रँगों जैसी।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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