मुहब्बत - ग़ज़ल - अज़हर अली इमरोज़

कभी ख़ुद में रहा करता कभी तुझ में रहा करता,
कभी तेरी पता करता कभी ख़ुद का पता करता।

मुहब्बत यार की क़स्में निभाते ही निभाते हैं,
सभी से यूँ जुदा हो कर जुदाई को सहा करता।

सताने को सताता है ज़माना हर ज़माने में,
किसी को क्यों बता कर मैं ख़ताओं से ख़ता करता।

बता दूँ प्यार की दामन में मेवा ही जो मेवा है,
हमेशा से ख़ुदा इंसान के दिल में बसा करता।

हमारी याद में हरदम तुम्हारी ख़्याल रहती है,
ख़ुदा के बाद तेरी चाहतें ही जो सज़ा करता।

हमी से तुम मुह़ब्बत है बग़ावत है अमानत भी,
ख़ुदी को क्यों किताबों की सबक़ ऐसे रटा करता।

तुम्हारे चाहने की सब तरीक़ा को सही पाएँ,
बताओ तुम ख़ुदी से अब ख़ुदी को क्यों ख़फ़ा करता।

अज़हर अली इमरोज़ - दरभंगा (बिहार)

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