कोल्हू की बैल हो गई है ज़िंदगी मेरी
दिन रात जुते जा रहा हूँ।
चंद सुख की चाह में
दर्दे दुख से पिसे जा रहा हूँ।
माद शरीर अपंग कर
वाहनों की सवारी भुजंग कर
आत्मतव से लूटे जा रहा हूँ।
रोगों को घर कर
मेहनत बेघर कर
जन जांघ से टूटे जा रहा हूँ।
मानवता मानवीयता भूल कर
कर कर्मठता धूल कर
पैसों कि राह में लीटे जा रहा हूँ।
तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)