गुलज़ार साहब के मशहूर शेर

आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा


कभी तो चौंक के देखे कोई हमारी तरफ़
किसी की आँख में हम को भी इंतिज़ार दिखे


शाम से आँख में नमी सी है
आज फिर आप की कमी सी है


वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
आदत इस की भी आदमी सी है


आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ए'तिबार किया


तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं
सज़ाएँ भेज दो हम ने ख़ताएँ भेजी हैं


हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते


आप के बाद हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही गुज़ारी है


हम ने अक्सर तुम्हारी राहों में
रुक कर अपना ही इंतिज़ार किया


जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ
उस ने सदियों की जुदाई दी है


मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को
मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है


अपने साए से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा


कितनी लम्बी ख़ामोशी से गुज़रा हूँ
उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की


कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है


ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में
एक पुराना ख़त खोला अनजाने में


कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्ताँ हमारी है


दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में


देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई


एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है
मैं ने हर करवट सोने की कोशिश की


सहमा सहमा डरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है


जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है


आँखों के पोछने से लगा आग का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ


वो एक दिन एक अजनबी को
मिरी कहानी सुना रहा था


दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसाँ उतारता है कोई


ज़िंदगी पर भी कोई ज़ोर नहीं
दिल ने हर चीज़ पराई दी है


ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी


उसी का ईमाँ बदल गया है
कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था


आप ने औरों से कहा सब कुछ
हम से भी कुछ कभी कहीं कहते


फिर वहीं लौट के जाना होगा
यार ने कैसी रिहाई दी है


राख को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद


ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है
दर्द दिल का लिबास होता है


वो उम्र कम कर रहा था मेरी
मैं साल अपने बढ़ा रहा था


यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
सोंधी सोंधी लगती है तब माज़ी की रुस्वाई भी


रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले
क़रार दे के तिरे दर से बे-क़रार चले


काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं
काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता


गो बरसती नहीं सदा आँखें
अब्र तो बारा मास होता है


एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे
दिल से इक ख़ौफ़ सा गुज़रा है बिछड़ जाने का


चंद उम्मीदें निचोड़ी थीं तो आहें टपकीं
दिल को पिघलाएँ तो हो सकता है साँसें निकलें


ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
वगर्ना ज़िंदगी भर को रुला दिया होता


ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डाँवा-डोल कभी


भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में
उजाला हो तो हम आँखें झपकते रहते हैं


चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ


ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं
ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं


रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे
धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में


यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता
कोई एहसास तो दरिया की अना का होता


अपने माज़ी की जुस्तुजू में बहार
पीले पत्ते तलाश करती है


आग में क्या क्या जला है शब भर
कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos