कभी सोचता हूँ मैं - कविता - डॉ॰ मुकेश 'असीमित'

कभी सोचता हूँ मैं,
बैठा हुआ आँगन के इस कोने में,
सूरज की किरणें भी जहाँ 
लाज के पर्दे से झाँकती हुई आती हैं।
जहाँ हवाओं की सरगम
पेड़ों से टकराकर मधुर गीत गाती है।
कभी सोचता हूँ मैं,
इस कोने को कल्पना का आकाश बना दूँ,
जहाँ शब्द पंख लगाकर उड़ें,
जहाँ बिंब अलंकारों की रोशनी से चमकें,
जहाँ हर पंक्ति,
आत्मा के मौन को व्यक्त करे।
कभी सोचता हूँ मैं,
इस कोने को कविता का मंदिर बना दूँ,
जहाँ हर विचार हो घंटा घड़ियाल की ध्वनि,
जहाँ हर भावना हो एक दीपक की लौ,
जहाँ हर पंक्ति हो
भक्ति का एक स्वर।
कभी सोचता हूँ मैं,
बैठ के आँगन के इस कोने में,
ख़ामोशी को आवाज़ दूँ,
सन्नाटे को संगीत बना दूँ।
लेकिन फिर...
हवा की सरसराहट,
पत्तों की फुसफुसाहट,
मुझे एहसास दिलाती है—
कविता ख़ुद ही तो बह रही है,
मुझसे, इस कोने से,
और इस पूरे जहाँ से।

डॉ॰ मुकेश 'असीमित' - गंगापुर सिटी (राजस्थान)

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