अपराध - गीत - संजय राजभर 'समित'

अपराध - गीत - संजय राजभर 'समित' | Hindi Geet - Apraadh | आत्म पर गीत/कविता
थका-थका-सा तन-मन मेरा,
ठगा-ठगा घबराता हूॅं।
जीवन क्या है समझ न पाया,
अपराधी-सा पाता हूॅं।

पाई-पाई अनमोल समझ,
नाहक मन ललचाया था।
पद-प्रतिष्ठा ईर्ष्या लोभ में,
जन-जन ह्रदय दुखाया था।

नींद खुली तो भारी गठरी,
खाली है चकराता हूॅं।
जीवन क्या है समझ न पाया,
अपराधी-सा पाता हूॅं।

बुद्ध कबीरा जिस राह चले,
उस राह चल न पाया मैं,
प्रपंच करके धार्मिकता का,
इज़्ज़त ख़ूब कमाया मैं।

अब वक्त नही मिलेगा हाय!
बाल नोच झुॅंझलाता हूॅं।
जीवन क्या है समझ न पाया,
अपराधी-सा पाता हूॅं।

रहस्य मिलता ध्यान योग से,
बाहर सब अंधियारा था।
परम तत्व से बस तार जुड़े,
मंज़िल यही हमारा था।

झुकी कमर है धुॅंधली आँखें,
दर-दर ठोकर खाता हूँ।
जीवन क्या है समझ न पाया,
अपराधी-सा पाता हूॅं।

संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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