उम्मीद - कविता - विजय कुमार सिन्हा

एक सुंदर भविष्य की आश में 
मात-पिता बड़े शहर में
छोड़ने जाते हैं अपने बच्चों को। 
लगता है अपनी साँसे हीं छोड़े जा रहे हैं। 
पर यह विछड़न
एक यात्रा है 
बीज से वृक्ष बनने की ओर।
ठीक वैसे हीं
जैसे पक्षी अपने बच्चों को
घोंसले से निकाल कर 
उन्मुक्त आकाश में उड़ने का उपहार देते हैं। 
कैसे कोई बाँध सकता है
विस्तार की परिभाषा?
एक सुंदर भविष्य की परिकल्पना 
अपने ज़ेहन में समेटकर वापस होते हैं 
अपने पुराने शहर/गाँव में।
ताकि कल उम्मीद का वृक्ष 
अपने बच्चों को और हमारे परिवेश को अपनी छाया से अभीभूत कर सके,
सुकून के दो पल मिल सके।

विजय कुमार सिन्हा - पटना (बिहार)

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