यादों का बसंत - कविता - ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'

रविवार की अलसाई सुबह 
जाग रही थी तेरी यादों के संग
खिड़की से ताका तो तुम्हारी
सहेली मिली...
वो बसंत की शोख-सी चंचल सुबह...
गोया तुम्हारा पता पूछती टपका गई
एक और सुबह... मेरे जीवन में।

कमरे में जो नज़र घुमाई तो
हर ओर तेरी यादों के रंग
बिखरे पड़े थे...
कि जैसे कैलाइडोस्कोप में रंग बिखेरते
काँच के रंग-बिरंगे छोटे-छोटे टुकड़े
तुम्हारी यादों का...
शरीर-सा, बातुनी-सा, खिलखिलाता-सा टुकड़ा 
हर कोने में।

साथ ही फैल गई थी कमरे में
उस हरसिंगार की ख़ुशबू, 
जो बेहद पसंद
थी तुम्हें इस महकते बसंत की तरह,
महसूस करने लगी थी अनजाने ही
तुम्हारे लम्स की गर्माहट, 
और रंग गया मन मेरा, 
आँगन में खिले
उस लाल टेसू के रंग में।

अकेली-सी बैठी इस कमरे में
देख रही हूँ बाहर खिलते बसंत को,
कभी अमराइयों में कूकते कोयल में,
तो धरा के हरियाले आँचल में
और कभी प्रेम-राग गाते भँवरे में,
मगर मैं तो युगों से घिरी हूँ तेरे
प्यार में गुज़ारे 'यादों के बसंत' में।

ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना' - राउरकेला (ओड़िशा)

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