सोचता हूँ - कविता - अमृत 'शिवोहम्'

उन नफ़रतों के समुंदर को उठाकर किसी सच्चे प्रेम की आग में फेंक दूँ,
सोचता हूँ उन पानी से भरे बादलों को पकड़कर किसी रेगिस्तान में फेंक दूँ।
इन लगातार बीत रही सदियों को रुकी हुई घड़ियों में फेंक दूँ,
सोचता हूँ इंसानियत के अलावा मेरे हर अस्तित्व को दरिया में फेंक दूँ।
उन ख़ून से भरे इतिहासों को मुहब्बत के बागों में फेंक दूँ,
सोचता हूँ इन तमाम उलझनों को पकड़कर माँ के आँचल में फेंक दूँ।
संसार के तमाम अंधेरों को किन्हीं धवल उजालों में फेंक दूँ,,
'अमृत' सोचता हूँ मेरी स्याह हक़ीक़तों को किन्हीं सुहाने बहानों में फेंक दूँ।

अमृत 'शिवोहम्' - जयपुर (राजस्थान)

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