पाप पुण्य - गीत - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'

पाप पुण्य परिभाषा जग में,
कर्म फलित मानक होता है।
मानदण्ड वे संस्कार मनुज,
सदाचार धारक होता है।

सत्संगति चलता जीवन पथ,
सत्कर्म पुण्य बरसता है।
देश धर्म परमार्थ विरत जग,
पाप सीढ़ियाँ नित चढ़ता है।

निज पौरुष बल लघुतर जीवन,
साफल्य सुयश जब खिलता है।
मानवता रक्षार्थ कर्म फल,
परमार्थ पुण्य पथ बढ़ता है।

जो बाँटे मुस्कान ख़ुशी जग,
दीनार्त्त मीत बन जाता है।
जो लाए मुख रेखा सुस्मित,
वह पुण्य पात्र जग भाता है।

जो जीता निज मातृभूमि हित,
सम्मान राष्ट्र रत होता है।
नव दर्शन अनुसन्धान नवल,
नव शौर्य कीर्ति रथ चढ़ता है।

जो लिखता सत्कर्म स्वर्ण यश,
संगीत गीत नव रचता है।
निर्भेद भाव औदार्य क्षमा,
इन्सान पुण्य बन सजता है।

किन्तु आज जन ग्रसित लोभ छल,
क्रोधाग्नि ज्वाल ख़ुद जलता है।
मृगतृष्णा फँस झूठ व्यूह रच,
हिंसक घृणा पाप महकता है।

लोभ कपट दंगा हित साधन,
सब रिश्तों को खो जाता है।
दुराचार दुष्कर्म घृणित पथ,
खल पातक पथ गिर जाता है।

प्रकृति कुटिल दुर्दान्त दनुज नित,
आघात वतन कर जाता है।
कुलांगार अपयश अपमानित,
आतंक पाप मन भाता है।

अविनत दुर्भाषी उत्श्रृंखल,
साज़िश वतन गढ़ जाता है।
कुल कलंक माता ममतांचल,
उपहास पाप तम छाता है।

अब निर्धारण पाप पुण्य जग,
बस स्वार्थ तुला तुल पाता है।
कर्म फलक विस्मृत अब मानक,
पाप पुण्य स्वार्थ धुल जाता है।
          
डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज' - नई दिल्ली

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