तेरी तारीफ़ करना भी यहाँ पर जुर्म ठहरा है - ग़ज़ल - प्रशान्त 'अरहत'

अरकान : मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
तक़ती : 1222  1222  1222  1222

तेरी तारीफ़ करना भी यहाँ पर जुर्म ठहरा है,
कहाँ जाऊँ मेरे आगे कुआँ खाईं से गहरा है।

उदासी का सबब पूछो नहीं मुझसे मेरी जानाँ,
निकल कर आँख से आँसू मेरी पलकों पे ठहरा है।

कहाँ जाकर रहेगा ये नहीं मालूम है हमको,
ठिकाना सिर्फ़ मजनूँ का वही वर्षों से सहरा है।

छुटा तो लूँ जरा सुर्ख़ी तेरे रंगीं इन लबों से मैं, 
तेरे चेहरे पे अब लेकिन यहाँ ज़ुल्फ़ों का पहरा है।

नहीं कोई यहाँ हलचल कभी तुम तक न आएगी, 
मेरे दिल का ये सागर आँख के दरिया से गहरा है।

नहीं तुझसे रही है अब शिकायत ही नहीं कोई,
तेरे आँचल से पहले ही तेरा परचम जो फ़हरा है।

प्रशांत 'अरहत' - शाहाबाद, हरदोई (उत्तर प्रदेश)

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