कलम चल पड़ती है मेरी - कविता - संदीप कुमार

बस कलम यूँ ही चल पड़ती है मेरी।

राह में चलते कभी, किसी का दीदार कर।
बेवफ़ाई में कभी, कभी किसी के प्यार पर।
भीड़ में कभी, तो कभी रात की तन्हाई में।
किसी की मुस्कुराहट में, कभी रुसवाई में।

बस कलम यूँ ही चल पड़ती है मेरी।

कभी किसी को ख्यालों में, सोचते हुए।
अंधेरे में, किसी उजाले को खोजते हुए।
किसी की आँखों में परेशानी को देखकर।
कभी किसी की प्रेम कहानी को देखकर।

बस कलम यूँ ही चल पड़ती है मेरी।

कभी दोस्ती, कभी चाहत, कभी प्यार में।
किसी के धोखे में, किसी के एतबार में।
कभी इन चलती हवाओं को महसूस कर।
किसी की यादों को दिल में महफ़ूज़ कर।

बस कलम यूँ ही चल पड़ती है मेरी।

कभी दिल का, दर्द बयाँ करने के लिए।
तो कभी ख़ुद से बहुत, लड़ने के लिए।
अपनी आत्मा, दिल के सुकून के लिए।
कभी अपने शौक़, कभी जुनून के लिए।

बस कलम यूँ ही चल पड़ती है मेरी।
बस कलम यूँ ही चल पड़ती है मेरी।

संदीप कुमार - नैनीताल (उत्तराखंड)

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