आदमी को आदमी समझा करो - ग़ज़ल - आलोक रंजन इंदौरवी

आदमी को आदमी समझा करो,
नफ़रतों का खेल मत गंदा करो।

ज़िंदगी के रूप हैं कितने नये,
तुम किसी भी रूप में महका करो।

दर्द कोई भी छुपा कर मत रखो,
दोस्तों के बीच में साझा करो।

कोई भी बातें सियासत की सुनो,
मत किसी के दाव में उलझा करो।

धर्म की बारीकियां जानो ज़रा,
दुख किसी को तुम न पहुंचाया करो।

लोग तो कुछ भी कहेंगे काम है,
हो सके तो उनको समझाया करो।

उन्नति जो चाहते हो अपनी तुम,
धैर्य से तुम कर्म पथ जाया करो।

आलोक रंजन इंदौरवी - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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