रिश्तों की बुनियाद - कविता - अतुल पाठक

उम्मीदों का कारवाँ बिछड़ने लगा,
दिखावे का रिश्ता बिखरने लगा।

विश्वास का अब न बचा कोई ठौर है,
ज़िंदगी मौन हो गई अब न रहा कोई शोर है।

रिश्तों से खेल रहा आदमी का दौर है,
जीवन की नैया का न मिलता कोई छोर है।

दुनिया में संगीन धोखे का ज़ोर है,
भरोसे को तोड़ती जो वो रिश्तों की बुनियाद कमज़ोर है।

जहाँ प्यार नहीं एतिबार नहीं,
वहाँ नफ़रत की बढ़ती डोर है।

अतुल पाठक "धैर्य" - जनपद हाथरस (उत्तर प्रदेश)

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