सहर को सहर नहीं कहता - कविता - हेमन्त कुमार शर्मा
शुक्रवार, जून 06, 2025
परहेज़ करता है वह खिलखिलाने से,
कि अपने मन की सरे-आम बताने से।
यूँ चुप रहता है
और आँखों से ख़ूब बोलता है,
जाने क्या आता है ज़ुबाँ पे पैमाने से।
तुझे मालूम नहीं आगे का
दोस्त मेरे,
छोड़ जूझने का मन बनाने से।
खाएगा फिर धोखा अपने मित्रों से,
बाज आ अपने मन की सुनाने से।
सहर को सहर नहीं कहता है वह,
रुकता नहीं शहर को जंगल बताने से।
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