सोने के पिंजरे इन्हें रास न आते हैं - कविता - रजनी साहू 'सुधा'

सोने के पिंजरे इन्हें रास न आते हैं - कविता - रजनी साहू 'सुधा' | Birds Kavita - Sone Ke Pinjare Inhen Raas Na Aate Hain
तन्हाई के मौसम में पंछी राग सुनाते हैं,
सन्नाटों की पीड़ा को स्वर में गुनगुनाते हैं।

प्रीत निभाने के ये सब राज़ छुपाते हैं,
बुलंदी के नभ में ये कलाबाज़ बन जाते हैं।
इनके कलरव के हर अंदाज़ भाते हैं,
तन्हाई के मौसम में पंछी राग सुनाते हैं,
सन्नाटों की पीड़ा को स्वर में गुनगुनाते हैं।

विरानों में भी ये बाग़ों के ख़्वाब दिखाते हैं,
नींदें चुराकर मीठे से सपने जगाते हैं।
भटकी शामों को घर की याद दिलाते हैं,
तन्हाई के मौसम में पंछी राग सुनाते हैं,
सन्नाटों की पीड़ा को स्वर में गुनगुनाते हैं।

पतझड़ की शाख़ों पर भी ये मुस्काते हैं,
कोटर के वैभव में जीवन रचाते हैं।
उन्मुक्त उड़ानों का सौभाग दिखाते हैं,
तन्हाई के मौसम में पंछी राग सुनाते हैं,
सन्नाटों की पीड़ा को स्वर में गुनगुनाते हैं।

नभ के सतरंगे रंगों में ये रम जाते हैं,
अवनी से अंबर तक दुनिया सजाते हैं।
सोने के पिंजरे इन्हें रास न आते हैं,
तन्हाई के मौसम में पंछी राग सुनाते हैं,
सन्नाटों की पीड़ा को स्वर में गुनगुनाते हैं।

रजनी साहू 'सुधा' - पनवेल, नवी मुंबई (महाराष्ट्र)

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