कसौटियार: बहुआयामी व्यक्तित्व - संस्मरण - पारो शैवलिनी

चितरंजन के हिन्दी नाटक जगत में एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में स्वयं को स्थापित करने में सफल रहे व्यक्ति के रुप में मैं जिस कलाकार से सर्वाधिक प्रभावित रहा वो थे कसौटियार, नलिनी रंजन कसौटियार।
१९६० से वो चितरंजन के नाट्य जगत से जुड़े रहे। हिंदी नाट्य समिति यहां की पहली संस्था थी जो चितरंजन तथा मिहिजाम के नाटक प्रेमियों को लेकर नाटक खेला करती थी। अभिनय से शुरू कर बाद में नाटक लेखन और फिर निर्देशन हर क्षेत्र में इन्होंने अपना लोहा मनवाया। इनका हर नाटक समस्यामूलक नाटक है सो इनके नाटकों को किसी खास स्थान और काल से जोड़ा नहीं जा  सकता। वो हमेशा कहते समाज समस्याओं का जाल है और इस जाल को काटने का एक सशक्त साधन है नाटक।


नाटक लेखन से लेकर उसके मंचन तक कसौटियार की छटपटाहट को आसानी से महसूस किया जा सकता था जिसका एक साक्षी मैं भी रहा। उसकी जीवनसंगिनी वैदेही कसौटियार के इस कथन से भी समझा जा सकता है कि कसौटियार के लिए नाटक क्या था। वो कहा करती थी " नाटक मेरी सौतिन थी।" 
नाटक के प्रति कसौटियार की दीवानगी ऐसी थी कि इसके मंचन के लिए पत्नी के गहने तक गिरवी रखने से भी बाज नहीं आते। चितरंजन रेल कारखाना के एक अच्छे ओहदे पर रहते हुए भी वो नाटक की जरूरत को पूरा करने के लिए दूध बेचने का धंधा भी किया करते थे।


अगर यह कहा जाय कि चितरंजन के हिन्दी नाटक को एक नई दिशा प्रदान करने में उनका अभूतपूर्व योगदान था तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि अपने नाटकों में वो काफी प्रयोग किया करते थे। यहां यह उल्लेख करना जरूरी होगा कि यहां के हिन्दी नाटकों में पूरी आर्केस्ट्रा के साथ पार्श्व संगीत से लेकर पार्श्व गायन तक का सफल प्रयोग कसौटियार ने अपने नाटक में किए जिसे यहां के नाटक प्रेमियों ने खूब सराहा। बतौर पार्श्व संगीतकार सुनील बनर्जी-दौलत लाल तथा गीतकार की हैसियत से चेतन जमालपुरी की मेहनत ने कसौटियार के नाटकों को काफी ऊंचाई प्रदान की।जिसे भूलाया नहीं जा सकता।


जीवन के अंतिम क्षणों में इस नाटककार को छोटा पर्दा अपनी तरफ खींचने लगा था। इसके लिए उन्होंने देश के युवाओं की समस्यायों के समाधान के लिए टीवी सीरियल पर काम कर रहे थे। टालीवुड के बंगला निर्देशक राजकुमार रायचौधरी के साथ चौराहा सीरियल पर काम कर रहे थे। मगर, उनकी यह तमन्ना अधूरी रह गई। इसी भागदौड़ में २७ नवंबर १९९१ को एक सड़क हादसे में गंभीर रूप से जख्मी हुए। दो दिनों तक मौत से लड़ने के बाद २९ को उनके जीवनीय नाटक का पर्दा गिर गया।


पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)


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