तुम्हीं तो हो - कविता - प्रवीन 'पथिक'
शनिवार, नवंबर 01, 2025
हर सुबह मेरे ख़्वाबों में आकर
मुझे अपनी सुगंधों से भर देने वाली
तुम ही तो हो।
तुम्हारा आहट पाकर ही तो,
पंछी बोलते हैं, फूल खिलते हैं, भौंरे गुंजार करते हैं।
प्रायः एक मनोरम दृश्य जीवंत हो उठता है।
वह तुम ही तो हो।
तुम जीवन की अमृत धारा की भाँति;
प्राणों में समा जाती हो।
सात समंदर पार उस जंगल में
सरोवर के बीचों-बीच
एक नीलकमल खिलता है।
वह भी तुम्ही तो हो।
कई अरसे बाद भी हृदय में
एक हूक सी उठती है–
जैसे वो सारी घटनाएँ, सभी दृश्य
एकाएक चक्षुपटल पर,
वही माधुर्य; वही सौंदर्य लिए
आच्छादित होते हैं।
वह तुम्ही तो हो।
मेरी चिर तृषित नेत्र
आज भी
उसी सौन्दर्यमयी, करुणामयी और उस मोहक छवि को,
देखने के लिए
लालायित है, जिसे किसी वस्तु में
कोई आकर्षण नहीं; कोई राग नहीं
या कोई जीवंतता दिखाई नहीं देता।
वो और कोई तो नहीं,
बस! तुम्हीं तो हो।
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