आँचल - कविता - प्रशांत
सोमवार, नवंबर 10, 2025
बूँदें गिर रही हैं,
मीठी हवा...
उसके आँचल से निकली हो जैसे।
आकर कान में एक मीठा राग घोलती,
कुछ कमियाँ बताती है मेरी...
लेकिन उसमें शिकायत नहीं है।
आँख मिचौली,
उसके आँचल के संग।
एक तार छिनक गई है मेरे मन की,
दादूरों की हलचल से,
शायद वो भी बूँद के मिलाप से,
ताकते रहते है जिसे अरसे तक।
मैं भी वेग से बात करना चाह रहा था,
क्या हाल हैं उसके...
शायद उसके आँचल से छन कर आई हो,
क्या पता धूल लाई हो,
वो गुज़रा अरसा,
आँख मिलाप!
दो क्षण की बोली...
कितना विराट लगता है,
सब समेट पाने में,
कुछ वही आज लग रहा है,
उस वेग में,
वो दो क्षण का झरोखा,
क़ैद नहीं हो पा रहा,
कुछ छूट गया है?
आत्मा कहती है,
उस छत के नीचे,
जिधर देखा था।
वो घाव छिप जाता है... दूर!
लेकिन वो बूँदें आती हैं,
फिर घाव टटोलने॥
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