दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी' - बलिया (उत्तर प्रदेश)
मेरा गाँव - कविता - दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी'
शुक्रवार, जुलाई 18, 2025
गीत पिक के, काक के काँव-काँव
बट वृक्ष के छाँव,
सरसों के पीत पुलकित पुष्प
सरिता में विहसित नाव।
खेतों में बैलों की जोड़ी
मुस्काते खेत-खलिहान,
चारो पहर हो व्याकुल
खड़े स्वागत को सिवान।
नागपंचमी के दंगल-कुश्ती
दशहरा के वे मेले,
कठघोड़े, चरखा-चरखी
लट्टू-जलेबी-केले।
प्रातः का शीघ्र जागना
शाम की मस्त थकान,
निशा के कोमल बाहों में
रंगीन सपनों के उड़ान।
पटनी पर पड़े गुड़-खटाई
कोठली के वे धान,
होली का फाग-जोगिरा
महुवे के रसपान।
थक चुका है मन का परिंदा
ढूँढ़-ढूँढ़कर हर ठाँव,
भग्न शहरों में सिमट चुका है
सुंदर-सा मेरा गाँव।
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