जाल - कविता - मदन लाल राज
बुधवार, जून 11, 2025
मकड़ी सिद्धहस्त है,
ख़ुद जाल बनाने में।
फिर तरकीब लगाती है,
शिकार को फँसाने में।
अपने रसायन से वो
बेतोड़ जाल बुनती है।
पकड़ने को कीड़े-मकौड़े
अपने हुनर से चुनती है।
इसी तरह आदमी भी श
ग़ज़ब के जाल बुनता है।
पर अफ़सोस, फँसाने हेतु
आदमी को ही चुनता है।
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