बुद्ध: करुणा और प्रज्ञा का संगम - लेख - सत्यजीत सत्यार्थी

बुद्ध: करुणा और प्रज्ञा का संगम - लेख - सत्यजीत सत्यार्थी | Article - Buddha Karuna Aur Pragya Ka Sangam. Hindi Article About Gautam Buddha
भूमिका: चेतना के आलोक में बुद्ध का आह्वान
मानव इतिहास के प्रवाह में कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी उदित होते हैं जो युगों की सीमाओं को लाँघकर चिरंतन बन जाते हैं। तथागत बुद्ध ऐसे ही एक महामानव हैं, जिन्होंने करुणा और प्रज्ञा के अद्वितीय समन्वय से न केवल अपने समय की चेतना को आलोकित किया, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए जीवन का एक नया मार्ग प्रशस्त किया।
बुद्ध का जीवन, शिक्षा और धम्म किसी एक दिवस या उत्सव का विषय नहीं है; वह सतत जागरण का आह्वान है — भीतर और बाहर, दोनों स्तरों पर।

बुद्ध का जीवन: ऐश्वर्य से निर्वाण तक की यात्रा
लुंबिनी की धरती पर जन्मे सिद्धार्थ गौतम का बाल्यकाल कपिलवस्तु के राजमहल में संपन्नता से अभिसिंचित था। किंतु सांसारिक भोग-विलास उनकी आत्मा को तृप्त न कर सका। वृद्धावस्था, बीमारी और मृत्यु के दर्शन ने उन्हें संसार के क्षणभंगुर सत्य से साक्षात्कार कराया।

29 वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ ने राजमहल, पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल का त्याग कर महाभिनिष्क्रमण किया। यह पलायन नहीं, बल्कि विश्व-पीड़ा के समाधान हेतु महान अभियान का प्रारंभ था।
छह वर्षों की कठोर तपस्या के पश्चात, बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्होंने सम्बोधि प्राप्त किया। यह केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं थी; यह मानव चेतना में संभव सर्वोच्च उपलब्धि थी।

चार आर्य सत्य: दुख से मुक्ति का वैज्ञानिक आधार
बुद्ध ने अपने ज्ञान के आलोक में चार आर्य सत्य प्रतिपादित किए:
1. दुःख — जीवन दुःखमय है।
2. दुःख समुदय — दुःख के कारण हैं।
3. दुःख निरोध — दुःख के निवारण हैं।
4. दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा — दुःख निवारण का मार्ग अष्टांगिक मार्ग है।

अष्टांगिक मार्ग: जाग्रत जीवन की पदचाप
1. सम्यक दृष्टि — 
संसार की यथार्थता को देख पाने की वह दृष्टि, जो मोह और भ्रांति के आवरण को चीर देती है। यह जानना कि जीवन दुख से भरा है, पर वह दुख अपरिहार्य नहीं — कि परिवर्तन शाश्वत है और बंधन अज्ञान का परिणाम। सम्यक दृष्टि वह अंतर्दृष्टि है जो जीवन को वस्तुतः जैसा है, वैसा देखने का सामर्थ्य देती है — बिना विकृति, बिना भ्रांति।

2. सम्यक संकल्प — 
केवल जानना पर्याप्त नहीं; जानने के साथ संकल्प का भी उतना ही गहरा संबंध है। सम्यक संकल्प वह आंतरिक प्रतिज्ञा है — कि मैं हिंसा का त्याग करूँगा, द्वेष को जलाकर भस्म करूँगा, और संसार के प्रति अपार करुणा तथा शांति का भाव रखूँगा। यह जागरूकता से उत्पन्न वह कोमल शक्ति है, जो जीवन को प्रेमपूर्ण दिशा में मोड़ती है।

3. सम्यक वाक् — 
शब्द केवल ध्वनि नहीं होते; वे चेतना के विस्तार हैं। सम्यक वाक् वह कला है, जिसमें सत्य, मधुरता, और कल्याण का संगम होता है। ऐसे वचन जो न किसी को आहत करें, न असत्य का जाल बुनें, न कलह को भड़काएँ। बुद्ध कहते हैं — वाणी वह दीपक है जो अंधकार भी फैला सकता है और आलोक भी; बुद्धिमान वही है जो वाणी से पुल बनाता है, दीवार नहीं।

4. सम्यक कर्म — 
कर्म केवल बाहरी गतिविधि नहीं, वह आंतरिक चेतना का प्रकटीकरण है। सम्यक कर्म वह आचरण है जो किसी प्राणी को कष्ट नहीं देता, जो सत्य और न्याय के संकल्प को जीवन में मूर्त करता है। यह जीवन के प्रत्येक क्षण को संयम, प्रेम और विवेक से स्पर्श करने की साधना है।

5. सम्यक आजीविका — 
जीवनयापन केवल उदर-भरण का साधन नहीं; वह भी साधना का क्षेत्र है। सम्यक आजीविका वह जीवनवृत्ति है जो न हिंसा पर आधारित हो, न छल-कपट पर। ऐसी आजीविका जो दूसरों के दुख का कारण न बने, बल्कि सामाजिक संतुलन और मानवता की सेवा में सहायक हो। यह जीवन के भीतर और बाहर दोनों में सम्यकता स्थापित करने की मौन प्रतिज्ञा है।

6. सम्यक प्रयास — 
विकृति और अकर्मण्यता दोनों से बचते हुए — मन, वचन और कर्म में पवित्रता लाने के लिए सतत जागरूक प्रयास करना ही सम्यक प्रयास है। यह न तो अंधा परिश्रम है, न आलस्य का शरणगृह — यह सजगता से संचालित वह जीवंत प्रवाह है जो चित्त को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करता है।

7. सम्यक स्मृति — 
वर्तमान क्षण में पूर्ण जागरूकता से स्थित रहना — यही सम्यक स्मृति है। बिना भूत के बोझ और भविष्य की चिंता के, वर्तमान को पूर्णत्व में जीने की कला। साँसों के प्रवाह से लेकर विचारों के आरोह-अवरोह तक, प्रत्येक क्षण को देखना, जानना और स्वीकारना — सम्यक स्मृति चित्त की निर्मल झील बनाती है, जिसमें सत्य प्रतिबिंबित होता है।

8. सम्यक समाधि — 
चित्त की समग्र ऊर्जा को एकाग्र कर, उसे उच्चतम लक्ष्य पर केंद्रित करना — यही सम्यक समाधि है। यह कोई जबरन साधना नहीं, बल्कि स्वाभाविक पुष्प की भाँति खिलती हुई गहन स्थिरता है, जिसमें मन व्यर्थ की चंचलताओं से मुक्त होकर, शांति के सागर में अवगाहन करता है। सम्यक समाधि वह द्वार है जहाँ से निर्वाण की ओर यात्रा संभव होती है।

सार रूप में: अष्टांगिक मार्ग — जीवन की उस संगीत यात्रा का नाम है, जिसमें करुणा की वीणा और प्रज्ञा की वंशी एक साथ गूँजती हैं, और हर साधक अपने भीतर के बुद्ध को जाग्रत करता है।

समत्व की सीढ़ियाँ: बुद्ध की दृष्टि में हर जीवन संभाव्य है
बुद्ध की करुणा केवल भावुक सहानुभूति नहीं थी; वह सक्रिय उपचार का आह्वान थी।
अंगुलिमाल जैसे हत्यारे के रूपांतरण से लेकर आम्रपाली जैसी गणिका के धम्म साधिका बनने तक, बुद्ध ने सिद्ध किया कि हर प्राणी में परिवर्तन की क्षमता निहित है।
उनकी करुणा में प्रदर्शन नहीं था; उसमें मौन था, समाधान था और समानुभूति थी — जो पाली ग्रंथों में गहनता से व्यक्त होती है।

प्रज्ञा की यात्रा: तर्क और अनुभव का संगम
बुद्ध का धम्म करुणा, तर्क और अनुभव पर आधारित था। उन्होंने कहा:
"एहि पस्सिको।"
(आओ और स्वयं देखो।)

वे किसी अंधश्रद्धा या केवल ग्रंथाधारित ज्ञान के पक्षधर नहीं थे। अपने अनुयायियों को उन्होंने सिखाया:
"अत्ताही अत्तनो नाथो, कोहि नाथो परोसिया।"
(स्वयं अपना दीपक बनो, अन्य कोई तुम्हारा सहायक नहीं।)
प्रज्ञा के माध्यम से ही शील और समाधि पुष्ट होते हैं।

करुणा और प्रज्ञा का संगम: संतुलित मानवता
बुद्ध ने करुणा और प्रज्ञा दोनों को एक ऐसे संगम में पिरोया जिसमें संवेदना और विवेक एक-दूसरे के लिए पूरक बनते हैं।
किसा गौतमी के प्रसंग में भी बुद्ध ने करुणा और प्रज्ञा का अद्भुत संतुलन प्रदर्शित किया। 

बुद्ध के शिष्य: करुणा और प्रज्ञा के संवाहक
बुद्ध के सिद्ध शिष्य केवल अनुयायी नहीं थे, वे करुणा और प्रज्ञा के आलोक के संवाहक भी बने।
महाकश्यप ने संघ की शुचिता को आत्मधर्म मानते हुए उसके मौन प्रहरी बन, जीवन पर्यन्त उसकी निर्मलता की रक्षा की।
सारिपुत्र, बुद्ध के प्रमुख शिष्य, तर्क और विवेक की प्रखर ज्योति थे — बौद्ध प्रज्ञा के मूर्त स्वरूप।
महामोग्गलान, ध्यान-साधना में गहन पारंगत, चित्त की गहराइयों में उतरने वाले विरले साधक थे।
आनंद, जिन्होंने बुद्ध के वचनों को आत्मसात किया, सुत्त पिटक की आधारशिला बनकर धम्म को स्मृति से शास्त्र में रूपांतरित करने वाले यथार्थ साक्षी बने।
उपालि, विनय के प्रकांड ज्ञाता, संघ की अनुशासन व्यवस्था के आधारस्तम्भ बने; उन्होंने धम्म को केवल आत्मानुशासन ही नहीं, शील-संयम और संघीय जीवन की मर्यादा से भी समृद्ध किया।
इन महान शिष्यों के माध्यम से धम्म की पवित्र धारा युगों-युगों तक प्रवाहित होती रही — शांति, समत्व और जागरण का संदेश लिए।

धम्म: जीवन का शाश्वत सिद्धांत
बुद्ध का धम्म केवल आध्यात्मिक साधना नहीं था; वह जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक और मानसिक क्रांति का आह्वान था। यह धार्मिकता की संकीर्ण परिभाषाओं से परे, मानवता की सार्वभौमिक आवश्यकताओं को संबोधित करता है।

बौद्ध धारा का वैश्विक प्रभाव: करुणा और विवेक की सभ्यता का विस्तार
सम्राट अशोक के धम्म विजय के प्रयासों से बुद्ध का संदेश अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, चीन, जापान और कोरिया तक पहुँचा।
यह केवल धार्मिक प्रचार नहीं था, बल्कि करुणा और विवेक की सभ्यता का विस्तार था।

आज का सन्दर्भ: बुद्ध की अनिवार्यता
आज का युग तकनीकी प्रगति का युग है, किंतु इस प्रगति के साथ नैतिकता, सह-अस्तित्व और संवेदना की कमी और गहरी होती गई है।
जब हिंसा सामान्य होती जा रही हो, जब भोग और उपभोग ही जीवन का लक्ष्य बनता जा रहा हो, तब बुद्ध का संदेश एक विकल्प के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है। बुद्ध का संदेश हमें सिखाता है: समता के भाव से देखना, प्रेम के भाव से जीना, और सत्य के भाव से चलना। यदि हम आज करुणा और प्रज्ञा को अपने जीवन में नहीं उतारते, तो केवल बाहरी समृद्धि से शांति संभव नहीं होगी। बुद्ध की शिक्षा में वह शक्ति है जो मनुष्य को भीतर से आलोकित कर सकती है और विश्व को स्थायी सुख और शांति की ओर ले जा सकती है।

निष्कर्ष: जाग्रत मानवता की ओर
बुद्ध केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं, बल्कि जीवन के चिरंतन प्रकाश हैं। यदि मानवता को स्थायी शांति, न्याय और संतुलन चाहिए, तो उसे करुणा और प्रज्ञा के संगम — अर्थात बुद्ध के धम्म — की ओर लौटना ही होगा।
अतः, आइए — हम स्वयं दीपक बनें और समस्त जगत को करुणा और प्रज्ञा के आलोक से आलोकित करें।

सत्यजीत सत्यार्थी - बोकारो (झारखण्ड)

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